Sunday, December 12, 2010

Jangal Ke Raja Ka Baja Band

 जंगल के राजा को जान के लाले पड़े.......
                    रिर्पोट -  रामकिशोर पंवार
बैतूल। सतपुड़ा के घने जंगल ऊँघते अनमने जंगल , इन वनो के खूब भीतर चार मुर्गे चार तीतर .....! उक्त कविता सतपुड़ाचंल के जंगलो की महिमा को मंडित करती थी लेकिन अब उक्त कविता इन जंगलो के लिए मजाक साबित होगी क्योकि इन जंगलो के भीतर अब तो चार मुर्गे और चार तीतर का मिल जाना ही एक बहँुत बड़ी चमत्कारिक घटना होगी. दिन प्रतिदिन घटे और कटते जा रहे जंगलो और मरते जा रहे जंगली जानवरो के चलते सतपुडा़चंल के हाल के बेहाल हो गए है. भारत में ही नहीं बल्कि संसार में काला हिरण को दुर्लभ प्राणी माना जाता है. हिरण संसार का सबसे तेज दौडऩे वाला वन्य प्रजाति का पशु माना गया है. काला हिरण भारत में हिमालय पर्वत श्रृंखला की तलघाटी में पाया जाता है. भारत में काला हिरण जिसे अंग्रेजी में 'एन्ट्रोलेन केरी केमराÓ कहा जाता है. वह बैतूल जिले के महाराष्ट्र राज्य की समीपवर्ती जंगलों में एक दशक पहले आसानी से खोजने पर मिल जाते थे. मध्यप्रदेश का बैतूल जिला भारत में हिमालय के बाद एक मात्र वन क्षेत्र है जहां पर काला हिरण यदा कदा दिखाई पड़ जाता है. बैतूल जिला आजादी के बाद इन काला हिरणों को संरक्षित नहीं कर पाया है. काले हिरण को तो आज एक दो जोड़े मिल सकते हैं पर यह जिला विश्व का एक मात्र अजुबा 'सफेद कौवाÓ को भी नहीं बचा सका है. इस चिंता से ग्रसित बैतूल जिला पर्यावरण संरक्षण समिति, बैतूल जिला वन्य प्राणी संरक्षण समिति ने 'दुर्लभ संरक्षणÓ कार्यक्रम को  चला रखा है. काला हिरण की संख्या कम होने का बैतूल जिले में मूल कारण इसके शिकार मांस एवं चमड़े की वजह से रहा है. यह जिला सांभर के चमड़े से बने जूते के लिए प्रसिद्घ रहा है. 1935 में बैतूल का हर दूसरा व्यक्ति सांभर के चमड़े का जूता पहना करता था. 1965 तक बैतूल जिले से लोग सांभर के चमड़े के जूते खरीद कर ले जाते थे.
    हिरण का मांस स्वादिष्टï होने के कारण जंगलों में बसे आदिवासी इसका शिकार करते चले आ रहे हैं. हिरण के चमड़े को अधिक दामों में खरीदने वालों ने इस जिले में शिकार के लिए जाल बिछा रखा है. इस समय भी हिरणों के मांस और चमड़े के चलते इनके अवैध के रोक टोक शिकार जारी है. बैतूल जिले में पूर्व में शिकार करने के लिए सुप्रसिद्घ चरित्र अभिनेता शम्मीकपूर, संगीतकार नौसाद आया करते थे. बैतूल जिले में शिकार पर लगी रोक के बाद भी वन्य प्राणियों का शिकार होना वन विभाग की लापरवाही का उदाहरण है. वन विभाग के अधिकारियों के कारण आज भी वन्य प्रजातियों का शिकार नहीं रूक सका है. बैतूल जिले में पाये जाने वाले काले हिरणों का वजन 4० से 45 किलोग्राम का होता है. ये काला हिरण 8० सेंटीमीटर ऊंचे होते हैं. सौ किलोमीटर प्रति घंटा की तेजी से भागने वाले काला हिरणों का समुह होता है. जिनमें नर मादा दोनों होते हैं तथा ये बैतूल जिले के आठनेर विकासखंड के सीमावर्ती वन परिक्षेत्र में दिखाई देते हैं. काला हिरण नर मादा दोनों का रंग जन्म से एक जैसा ही होता है. युवा होने पर इन हिरणों का पेट वाला भाग सफेद होता है तथा बाकी शरीर काला होता है. इनके (नर) के सर्फीलाकार सिंग होते हैं. जबकि मादा काला हिरणों के सिंग नहीं होते है. 1.2० से 1.3० मीटर लंबे काला हिरणों के बारे में बैतूल जिले के आठनेर विकासखंड के सामाजिक कार्यकत्र्ता एवं वन्यप्राणी प्रेमी प्रकाश खातरकर काफी समय से इन काला हिरणो के उचित सरंक्षण की मांग करता चला आ रहा है. उसके अनुसार अगर समय रहते उचित सरंक्षण इन काले हिरणो को नहीं मिला तो ए कहीं बच्चो की लोक कथा न बन जाए  भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को बैतूल के काला हिरणों के प्रति ठोस योजना बनानी चाहिए. सतपुड़ाचंल के जंगलो में वन्यप्राणियो का बेरहमी से हो रहे शिकार और उनके बाल और खाल का अंतराष्टï्रीय बाजार में काले व्यापार के कारण सतपुड़ांचल के दिन - प्रतिदिन बिरले होते जा रहे जंगलो में राज करने वाला शेर आज अपने इलाके में सुरक्षित नहीं है . सम्पन्न घरो के डाइंग रूम की शोभा बनते जा रहे वन्यप्राणियों की खाल और बाल ने उन्हे आज कहीं का नहीं छोड़ा है .हाल ही में  प्रदेश की भाजपा सरकार ने अपने सबंधित विभाग से प्रदेश के जंगलो में वन्यप्राणियो की गणना तो करवा ली पर वह इन पंक्तियो के लिखे जाने तक उनकी मौजूदगी को सही ढंग से प्रमाणित नहीं करवा सकी है.
        कभी जंगल में राज करने वाले जंगल के राजे के वो बाजे बजे है कि उसे अपनी नानी याद आ गई होगी . मौजूदा परिस्थिति में तथाकथित जंगल का राजा शेर आज अपने इलाके में सुरक्षित नहीं है . सम्पन्न लोगो के डाइंग रूम की शोभा बनते जा रही शेर के खाल और उसके बाल तथा नाखुन ने उसे आज कहीं का नहीं छोड़ा है . अकेले मध्यप्रदेश में बीते बारह सालों में शेर के शिकार की सैकड़ो घटनाये घट जाने के बाद भी शेर की जान - माल की कागजी सुरक्षा में लगा टाइगर सेल ही शक के दायरे में आ गया है . मध्यप्रदेश की पूर्व दिग्गी राजा की सरकार के कार्यकाल में जंगल के राजा शेर के शिकार की कई ऐसी घटनाये इस तथ्य को बयाँ करती है कि राज्य में जंगल का राजा अपने आप को शिकारियों से ज्यादा उसके रखवालों से ही असुरक्षित समझ रहा है . इसी तरह पुरे हिन्दुस्तान की हालत भी कम चिंताजनक नहीं है. हमारे देश में शेरो के शिकार की बढ़ती वारदातों के चलते प्रकृति पर दूषित पर्यावरण की मार और जंगल माफियाओं के राज के चलते जहां एक ओर धीरे-धीरे भारत भू-खण्ड में जंगलो का प्रतिशत घटता जा रहा है वहीं पेड़-पौधों के कम होने से उनके बीच निवास करने वाले वन्य जीव-जंतुओं की संख्या में भी भारी कमी आने लगी है. जंगली शेर, हाथी, गैंडा, तेंदुए तो अब कागजी किस्से कहानियाँ की शक्ल लेने लगे है. भारत ही नहीं अपितु सारी दुनिया में इनकी आबादी लगातार घट रही है. बैतूूूल जिला वन्य प्राणी संरक्षण समिति के संयोजक कहते है कि हर जगह जंगली जानवरो के प्राकृतिक आवास माने जाने वाले वनो के दिन प्रतिदिन कटने से इनमें असुरक्षा की भावना जागी है. असुरक्षित जंगली जानवर हिसंक होते जा रहे है. जंगलों के सिकुडऩे के साथ-साथ तेंदुओं एवं शेरों का सामान्य भोजन पहाड़ी बकरियां, जंगली सूअर और जंगली उल्लू भी खत्म हो रहे है. इसलिए इनके पास खाने को कुछ नहीं है और उन्होंने अपना मुंह जंगल से शहर एवं गांवों की ओर कर दिया है. इसी का परिणाम है कि यह जानवर आज नरभक्षी हो चले है. आज के दौर में जंगल माफियाओं और शिकारियों के बढ़ते आतंक से जहां शेर और बाघ सहित अन्य जंगली जानवर तेजी से लुप्त होते रहे है.विश्व के जंगल के राजा के नाम से विख्यात 'दि रॉयल टाइगरÓ अब एक भीगी बिल्ली की तरह हो गया है. अब जंगल के इस बेताज बादशाह को अपनी जान के लाले पड़े है. मध्यप्रदेश के सतुपड़ा घने जंगलों में जंगल माफिया ने अपनी पैसे कमाने की भूख के लिए शेर, बाघ बल्कि हिरण, चीतल, नीलगाय और मोर तक को नहीं बख्शा हैैै. वन्य प्राणियो के इन खूनी सौदागरों ने इनके माँस ,चमड़ी, हड्डिïयों, नाखून सहित शरीर के कई अंगों का लम्बा चौड़ा कालाबाजार फैला रखा है .इस गैरकानूनी बाजार की नाक में नकेलडालने की आज किसी में हिम्मत नहीं है क्योकि इस बाजार में दुकान लगाने वालों को अफसरशाही देश की भ्रष्टïराजनीति ने संरक्षण दे रखा है. आज इन लोगो के दम पर वन्य जीवो के बाल और खाल का कारोबार अब अन्तरराष्टï्रीय स्तर पर फैल चुका है .
         मध्यप्रदेश में आगरा-बम्बई राष्टï्रीय राजमार्ग एवं शिवपुरी भोगनीपुर राज्यपथ पर स्थित प्रसिद्ध माधव नेशनल पार्क प्राकृतिक छट और अन्य प्राणियों की चहलपहल का ऐसा केंद्र है, जिसकी ख्याति अनेक देशों में भी है. इस समय इस वन्य प्राणियों के लिए आरक्षित क्षेत्र में अवैध शिकार और 'शिकारÓ के अंगो का व्यापार पनप गया है. इस नेशनल पार्क के साथ पूर्व ग्वालियर स्टेट के सिंधिया राजवंश के तत्कालीन राजा-महाराजाओं का इतिहास जुड़ा हुआ है. सन्ï 1918 में तत्कालीन महाराजा माधोराव सिंधिया ने इसे पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित किया. अगर खबऱो पर भरोसा किया जाए तो सबसे चौकान्ने वाली खबऱ यह है कि माधव नेशनल पार्क स्थित संख्यासागर झील से प्रतिदिन लगभग तीन-चार सौ किलोग्राम मछली तस्करी कर शिवपुरी जिले से बाहर शिवपुरी के रिक्शा, तांगे वालो के माध्यम से आगरा, कानपुर, झांसी भेजी जा रही है. इस पार्क से लगे आसपास के होटलो एवं ढाबो पर हिरण, खरगोश, नीलगाय, जंगली सूअर और राष्टï्रीय पक्षी मोर का मांस भी सदैव उपलब्ध रहता है. वन विभाग के अफसर अपना बचाव करते समय स्टाफ की कमी का राग अलापना नहीं भूलते है.  वे इस बात को भी दंभ खंभ के साथ कहते है कि इस उच्च दर्जे के नेशनल पार्क में मात्र 3 रेंजर, 1 फॉरेस्टर, 31 गार्ड तैनात है जिन पर लाखों जंगली जानवरों की सुरक्षा का भार है. यह अधिकारी सभी को एक किस्सा बताना नहीं भूलता है कि 1978 में जिस अपराधी को मछली के अवैध धंधे के आरोप में गिरफ्तार कर न्यायालय में चालान प्रस्तुत किया था, उस पर दस साल पश्चात 1989 में मात्र 25 रूपए का जुर्माना हुआ तभी से अपराधियों के हौसले बुलंद है .
            बैतूल जिला वन्य प्राणी संरक्षण समिति द्घारा उपलब्ध आकड़ो के अनुसार पहाड़ी रास्तो पर तेंदुए गांव के कुत्तों, मवेशियों और मनुष्यों को अपना निशाना बनाते है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों और महाराष्टï्र के कुछ हिस्सों में भूखे भेडि़ए छोटे-छोटे बच्चों को अक्सर अपना शिकार बना लेते है. सन्ï 1880 में बिहार में भेडिय़ो ने 200 लोगों को मारा. हाल के कुछ वर्षों में पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में भेडि़ए का आतंक बना हुआ है. हिमाचल में 1991 और 1993 के बीच 21 लोग तेंदुए के शिकार हुए. बाद में इन नरभक्षियों की धर-पकड़ और शिकार के बाद यह संख्या घटकर आधी हो गई है. वैसे केन्द्र सरकार ने इनके शिकार पर प्रतिबंध लगाया हुआ है क्योंकि ये लुप्तप्राय जानवरों की सूची में है. गैर-कानूनी ढंग से इन्हें मारे जाने पर 50,000 से 1.5 लाख रूपए तक के जुर्माने का प्रावधान है. वन्य प्राणी संरक्षण से जुड़े एक राज्य प्रशासनिक अधिकारी ने स्वीकार किया कि सरकारी स्तर पर संरक्षण से तेंदुओं की संख्या में वृद्धि हुई है वहीं कुछ जीव विज्ञानी इस बात का खंडन करते है. दुनिया में शेरों का जहां तक सवाल है उनकी आबादी तो घट ही रही है किंतु शुक्र है कि इनके संरक्षण की चिंता करने वाले भी कम नहीं है, जो प्रजातियां खतरे में है उनके बचाव के लिए लोग आगे आने लगे है. एक ऐसे बड़े ऑपरेशन को 'ट््ïवेण्टी फस्ट सेंचुरीÓ कहते है, जो शेर की रक्षा करने के उद्देश्य से एकजुट हुई टास्क फोर्स, ग्लोबल टाइगर पैटराल और लंदन जू नामक तीन ब्रिटिश संस्था का एक समूह है. भारतीय शेरों की रक्षा के लिए भी हाल में ब्रिटेन के पर्यावरण विभाग ने 5,000 पौण्ड का अंशदान किया है.
            टास्क फोर्स के अनुसार संसार में शेरो की आबादी घटकर 3,000 के लगभग रह गई है, जिनमे से तीन उप-प्रजातियां तो बिल्कुल लुप्त हो चुकी है और साइबेरियन शेर उनमे से है जिन पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है. टास्क फोर्स आजकल अपनी अमरीकी सहयोगी ग्लोबल सरवाइवल नेटवर्क के साथ काम करते हुए आपरेशन अम्बा के लिए धन और उपकरणों की व्यवस्था कर रही है. आपरेेशन अम्बा रूसी सरकार की एक योजना है जिसके अंतर्गत रेंजरो या वनपालों की टोलियां जंगलों और फार्मों में सुदूर पूर्व के रूसी शेरों के आवासीय ठिकानों में भीतर घुसकर दूर-दूर तक गश्त लगाती है. दरअसल चोर शिकारियों की जर शेरों, गैंडो और भालुओं की खाल के अलावा उनके शरीर के विभिन्न हिस्सों पर भी रहती है, जिनसे अनेक रोगों के उपचार तथा रतिवद्र्धक दवाएं चीन में बहुत जमाने से बनाई जाती है. हाथियों की जरूरत उनके दांतो के लिए रहती है, जिनसे जेवरात तथा अन्य सजावटी सामान बनाए जाते हैै. चीनी दवाएं और हाथी दांत की वस्तुएं विश्व बाजार में ऊंचे दामों पर बिकती है. अम्बा रेंजर ऐसे चोर-शिकारियों की तलाश में रहते है जो खालों और जानवरों के शरीर के हिस्सों को ले जाने की कोशिश करते है. इन रेंजरों को यह अधिकार है कि वे किसी भी आगन्तुक या उसकी गाड़ी की तलाशी ले सकते है. सू फिशर जो कि टास्क फोर्स की सदस्या है, बताती है कि इस चौकसी का ही नतीजा है कि 1993 में जहां 60 शेर चोर शिकारियों द्वारा मारे गए वहीं 1994 में 40 और 1995 में मात्र 15 ही शिकारियों के हत्थे चढ़े.
         एक सर्वेक्षण के अनुसार इस समय केवल 300 साइबेरियन शेर धरती पर विद्यमान है, जबकि हाल में किए गए एक अध्ययन में यह संख्या 425 और 475 के बीच बताई गई है. संरक्षको की दृष्टिï में यदि इनमे से सबसे ऊंची संख्या भी सही है तब भी चिंता बहुत बड़ी है और इनकी रक्षा के लिए बहुत भरोसेमंद और मजबूत उपायों की आवश्यकता है. अगर समय रहते जंगल के राजा शेर के संरक्षण की दिशा में ठोस पहल नही की गई तो ये भी डायनासोर की भांति पृथ्वी से लुप्त हो जाएंगे और हमें भविष्य में इनके जीवाश्मों से काम चलाना पड़ेगा .

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